मनुष्य के अंतःकरण मे जो परमात्मा नाम का। तत्व विराजमान है उसी की विधमानता शरीर मे चेतना उत्पन करती है। जिसके बल पर मनुष्य सारे बिचार और व्यहार करता हैं। परमात्मा जब इस चेतना को अंतहिर्त कर लेता है, तब यह चलता फिरता चेतन शारीर जड़ हो कर मिट्टी बन जाता है, किन्तु मनुष्य सोचता है की उसका शारीर अपना है, उसको चेतना अपनी है अपनी सत्ता से ही वह सरे कार्य व्यवहार करता है, यह मनुष्य का मिथ्या अहंकार है। जीवन प्रगति मे मनुष्य का अहंकार बहुत बड़ा बाधक है, इसके वशीभूत होकर चलने वाला मनुष्य प्रय: पतन की ओर ही जाता है। श्रेय पथ की यात्रा उसके लिए दुरूह एव दुर्गम हो जाती है, अहंकार से भेद बुद्धि उत्पन् हो जाती है। जो मनुष्य को मनुष्य से दूर नहीं होने देती है अपितु अपने मुलश्रोत परमात्मा से भी भिन्न कर देती है

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