नालंदा विश्वविद्यालय प्राचीन भारत की उच्च शिखा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात
केंद्र था। बिहार के ननलंदा जिले में एक नालंदा विश्वविद्यालय था। यहाँ देश विदेश से
छात्र शिक्षा प्राप्त करने के थे। आजकल सिर्फ इसके अवशेष दिखाई देते है। यह पटना से
९० किलोमीटर दूर और बिहार सरीफ से सिर्फ 12 किलोमीटर के दुरी पे है। यह विश्व की प्रशिद्ध
प्राचीन बौद्ध विश्वविद्यालय था। यहाँ 10000
छात्र शिखा प्राप्त करते थे जिनको पढ़ने के लिए
2000 शिक्षक थे। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 7वी शताब्दी में यहाँ जीवन का महत्वपूर्ण एक विद्यार्थी
और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था।
विश्वविद्यालय
की स्थापना
मध्यकालीन
सम्राट कुमारगुप्त प्रथम ने 415-454
ई.पू. नालंदा विश्वविद्लाय की स्थापना की गए थी। नालंदा
संस्कृत सब्द 'नालम+दा ' से बना है। संस्कृत में नालं का अर्थ कमल होता है। कमल ज्ञान का प्रतिक है। नालम + दा यानि कमल देने वाली ,
ज्ञान देने वाली। महाराज शकादित्य,
सम्भवतः गुप्तवंशीय सम्राट कुमारगुप्त,
415-454 ई.पू. ने इस
जगह को विश्वविद्लाय के रूप में विकसित किया। उसके बाद उनके उत्तराधिकारी व अन्य
राजाओं ने अनेक विहारों और विद्यालयों का निर्माण करवाया। इनमे से गुप्तसम्राट बालादित्य ने 470 ई में यहाँ एक सुंदर मंदिर बनवाकर भगवान बुद्ध की
80 फीट की प्रतिमा स्थापित की थी।
नालंदा
विश्वविद्यालय अध्ययन करने के लिए जावा, तिब्बत, श्रीलंका, मंगोलिया, भूटान,इंडोनेसिया, सेंट्रल एशिया और
छात्र आते थे। जब ह्वेनसांग भारत आया था। उस समय नालंदा विश्वविद्यालय में 8500
छात्र और 1510 आचार्य थे। इनमे प्रख्यात आचार्यो में शीलभद्र,धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति, स्थिरमति, प्रभामित्र, जिनमित्र, दिकनाग, ज्ञानचंद्र, नागार्जुन, वसुबन्धु, असंग, धर्मकृति आदि थे। इस विश्वविदयालय में पाली भाषा में शिक्षण
कार्य होता था। पहले यहाँ केवल के बौद्ध विहार बना था जो धीरे धीरे एक महँ
विद्यालय के रूप में परिवर्तित हो गया।
नालंदा में
बौद्ध धर्म के अतिरिक्त हेतुबिधा,सब्दविधा, चिकित्सा शास्त्र, अथर्वेद था संख्या से सम्बंधित विषय भी पद्य जाते थे।
युवानच्वांग ने लिखा था की नालंदा एक सहस्त्र विद्वान् आचार्यो में से सौ ऐसे थे
जो सूत्र और शास्त्र जानते थे, पांच सौ 3 विषयो में प्राणगत थे,और बिस 50 विषयो में। केवल शीलभद्र ऐसे थे जिनकी सभी विषयो
में सामान प्राणगत थे।
नालंदा
विश्वविद्लाय के 3 महान पुस्तकालय थे रत्नोदधि, रत्नसागर
और रत्नरंजक थे।



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